Sunday, September 13, 2015

बरसने को मैं भी तरसू! A Hindi Poem in response to Monsoon Deficit...


बरसने को मैं भी तरसू

एक दिन मैने आसमाँ से कहा,
मुझे ज़रूरत है भूरी भूरी बारिश के बूंदो की
मुझे उम्मीद है हरे भरे खेत ख़लियानो की
है उम्मीद मुझे हरे भरे लहराते पेड़ पौधों की
पर खैर मुझे ये हरे घाँस की चादर ना दिखी !!


अब तेरे इस ढोंग से परेशान हु मैं
क्योंकि हरे रंग से दिल नहीं भरता मेरा
देना है तो बारिश ही दे दे ऐ आसमाँ
हर एक बूँद के लिए हरियाली है तरसती !!


बरसा दे बूंदे इस कदर की,
दिल मेरा भी भरे और धरती भी खिल उठे…


सुन कर मेरी यह शिकायत
आसमाँ फिर बोल उठा,


बरसने को मैं भी तरसू
गरजने को बादल भी हैं उतावले
उड़के काश मैं आ जाउ तेरे पास
जब चहुँ तब बरसू ऐ पगले !!


पंख मेरे तूने ही काट डाले
उन पहाड़ियों और वादियों को उजाड़ डाला
पेड़ पौधे तो अब तेरे साथी ना रहे
तूने तो अपनी जड़ को ही उखाड़ डाला !!


मेरी पेह्चान तुझसे नही
तेरा वजूद है मुझपे निर्भर
अब भी वक्त है थोड़ा सुधर जाने को
अब तो थोड़ा डर और रहम कर
प्यार गर तू अपने आप से करे 
मेरी और यह धरती के प्यार को न खत्म कर !!


- रंजन पांडा
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(My poem in response to one of the worst deficit rainfall years that we are facing now)

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